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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


शांति

दिल को दोनों हाथों से थामे, मैंने जंजीर खटखटायी। गोपा एक लालटेन लिए निकली। मैंने गोपा के मुख पर एक नए आनंद की झलक देखी।
मेरी शोक मुद्रा देखकर उसने मातृवत् प्रेम से मेरा हाथ पकड तलया और बोली आज तो तुम्‍हारा सारा दिन रोते ही कटा; अर्थी के साथ बहुत से आदमी रहे होंगे। मेरे जी में भी आया कि चलकर सुन्‍नी के अंतिम दर्शन कर लूं। लेकिन मैंने सोचा, जब सुन्‍न ही न रही, तो उसकी लाश में क्‍या रखा है! न गयी।
मैं विस्‍मय से गोपा का मुहँ देखने लगा। तो इसे यह शोक-समाचार मिल चुका है। फिर भी वह शांति और अविचल धैर्य! बोला अच्‍छा-किया, न गयी रोना ही तो था।
‘हां, और क्‍या? रोयी यहां भी, लेकिन तुमसे सचव कहती हूं, दिल से नहीं रोयी। न जाने कैसे आंसू निकल आए। मुझे तो सुन्‍नी की मौत से प्रसन्‍नता हुई। दुखिया अपनी मान मर्यादा लिए संसार से विदा हो गई, नहीं तो न जाने क्‍या क्‍या देखना पड़ता। इसलिए और भी प्रसन्‍न हूं कि उसने अपनी आन निभा दी। स्‍त्री के जीवन में प्‍यार न मिले तो उसका अंत हो जाना ही अच्‍छा। तुमने सुन्‍नी की मुद्रा देखी थी? लोग कहते हैं, ऐसा जान पड़ता था—मुस्‍करा रही है। मेरी सुन्‍नी सचमुच देवी थी। भैया, आदमी इसलिए थोडे ही जीना चाहता है कि रोता रहे। जब मालूम हो गया कि जीवन में दु:ख के सिवा कुछ नहीं है, तो आदमी जीकर क्‍या करे। किसलिए जिए? खाने और सोने और मर जाने के लिए? यह मैं नहीं चाहती कि मुझे सुन्‍नी की याद न आएगी और मैं उसे याद करके रोऊँगी नहीं। लेकिन वह शोक के आंसू न होंगे। बहादुर बेटे की मां उसकी वीरगति पर प्रसन्‍न होती है। सुन्‍नी की मौत मे क्‍या कुछ कम गौरव है? मैं आंसू बहाकर उस गौरव का अनादर कैसे करूं? वह जान‍ती है, और चाहे सारा संसार उसकी निंदा करे, उसकी माता सराहना ही करेगी। उसकी आत्‍मा से यह आनंद भी छीन लूं? लेकिन अब रात ज्‍यादा हो गई है। ऊपर जाकर सो रहो। मैंने तुम्‍हारी चारपाई बिछा दी है, मगर देखे, अकेले पडे-पडे रोना नहीं। सुन्‍नी ने वही किया, जो उसे करना चाहिए था। उसके पिता होते, तो आज सुन्‍नी की प्रतिमा बनाकर पूजते।’
मैं ऊपर जाकर लेटा, तो मेरे दिल का बोझ बहुत हल्‍का हो गया था, किन्‍तु रह-रहकर यह संदेह हो जाता था कि गोपा की यह शांति उसकी अपार व्‍यथा का ही रूप तो नहीं है?

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